अन्धकार


                                              

             कड़ी धूप में खेती करके वो थक चुका था | पूरा शरीर पसीने से लथ-पथ था और पैर मिट्टी में | आज सूर्य देव एकदम प्रचंड थे | धूप ऐसी प्रतीत हो रही थी जैसे अग्नि के शोले बरस रहे हो | लेकिन फिर भी फसल तो काटनी ही थी | नहीं तो बेचेगा क्या | बगल में दो बैल आराम कर रहे थे | आज उनका कोई काम नहीं था |

             मुंशीराम फसल काट ही रहा था कि पीछे से उसकी पत्नी उसे आवाज़ लगाती है | वह खाना लेके आई थी | लीला के चेहरे पर आज एक अलग ही मुस्कान थी | वो समझ नहीं पा रहा था इस ख़ुशी का कारण | लीला भागते हुए उसके पास पहुँचती है | मुंशीराम खाने का डब्बा अपने हाथ में पकड़ लेता है और उससे पूछता है – “ क्या हुआ? आज इतनी खुश क्यूँ हो?” | वो दोनों बगल वाले पेड़ के निचे जाकर बैठ जाते है | “तुम विश्वास नहीं करोगे आज क्या देख के आ रही हूँ |” लीला एकदम खुश होकर बोलती है | “बड़ा साहब आज जा रहा है” |

             “क्या?”, मुंशीराम चौंक पड़ता है | उसे विश्वास था कि यह नहीं हो सकता | लीला को ज़रूर कोई ग़लतफहमी हुई है | “पगला गयी हो क्या? ऐसा कहा मुमकिन है” | “अरे पगला क्या गयी हूँ | मैं खुद अपनी आँखों से देख के आ रही हूँ | उसका एक बड़ा सा काफिला गाँव से होता हुआ निकला | सब कह रहे थे की साहब जा रहे है, अब कोई और आयेगा” | “मगर उसकी पहुँच तो खूब थी | ऐसे कैसे वो चला गया | लगता है उसे उसके कर्मो का फल मिल गया” | मुंशीराम की आँखों में आँसू आने लगे थे | उसे आज भी सब याद आ रहा था | उसने एक बार फिर पूछा-“ वो ही साहब न जिसने गिरजा को.........” | लीला एकदम बीच में रोक देती है, “मत याद करो उस बात को | हाँ, वो ही साहब | उससे बड़ा कौन है यहाँ पे | अब वो जा रहा है तो उम्मीद करो एक किरण कि” | मुंशीराम भी एकदम खुश हो पड़ता है | वह खाना खाता है और लीला डिब्बा लेकर वापस चली जाती है |

             वो ख़ुशी से अपने खेत की ओर निहारता है | फसल लहरा रही होती है | दोनों बैल अब बगल के तालाब से पानी पी रहे थे और मजे से अपनी पूँछ हिला रहे थे | उनके लिए तो जग इस समय स्वर्ग के सामान था | आज कोई काम नहीं तो मार भी नहीं पड़ने वाली | बस घर जाते समय थोड़ी सी पड़ेगी |

             शाम को घर पहुँच के मुंशीराम एक मिठाई का डिब्बा लेकर आता है | लीला भी खुश होती है | उसे अपने पति की इस ख़ुशी का कारण पता था | क्यूँ ना पता हों, उसने ही तो यह खबर मुंशीराम को सुनाई थी |

              खाना  खाने  के बाद वे मिठाई खाते है | आस-पास कोई  रहता तो था नहीं | इसलिए सारी खुद ही खा गए | मुंशीराम का घर एकदम अलग था | जंगल में १५ मिनट तक चलो, तो उसकी झोपडी दिखाई देती थी | उसे गाँव से निकाल दिया गया था | उसने और उसकी पत्नी ने बहोत विन्तियाँ कि थी सरपंच जी से | “मेरी गलती क्या है सरपंच जी | क्या मैं आवाज़ भी नहीं उठा सकता |” किसी ने उसकी नहीं सुनी थी | सरपंच के आदमियों ने गाँव वालो को पहले ही धमका दिया था कि कोई उससे बात न करे |

             मुंशीराम कि झोपडी  के बाहर बस एक छोटी सी लाल्टेन चमकती थी | ६ : ३० बजे करीबन घोर अँधेरा होते ही उसका घर छुप जाता था | बस वो लाल्टेन चमकती थी | लेकिन उसे किस बात की परवाह, कौनसा कोई उसके घर आ रहा है | डर था, तो केवल बाघ का | ६ बजे के बाद वो और लीला खुद कही नहीं जाते थे | बाघ के डर से उसने बैलो और गायों के लिए अलग कमरा बनवा रखा था |

            मिठाई खाते हुए मुंशीराम बोलता है - “साहब को पक्का उसके कर्मो कि सज़ा मिली है | अब सड़े वो कचरे के ढेर में | हमसे हमारी बेटी छीन ली.. ”, और वो फूट-फूटकर रो पड़ता है | लीला उसे शांत कराती है | “रो मत जी | जैसा हमारी बिटियाँ और हमारे भाग्य में लिखा था, वैसा तो होना ही था | इन बड़े लोगो का हम कुछ नहीं बिगाड़ सकते | लेकिन भगवन सब देखता है जी | सब को कर्मो का फल मिलता है |”

              मुंशीराम रुआसु स्वर में बोलता है – “भाग्य नहीं था ये हमारा | उस कमीने ने बना दिया | हँसती-खेलती बिटियाँ थी हमारी | किसी का क्या बिगाड़ा था उसने | इतनी मेहनत से उसे हमने पड़ने के लिए शहर भेजा था | तुमने अपने जेवर बेचे थे | याद है तुम्हे लीला, उसने कितना मना किया था | तुम्हारे कान में बालियाँ दिखे, इसके लिए वो अपनी पढाई भी  छोड़ने को तैयार थी | काश हमने उसे न भेजा होता|” रोने का स्वर धीरे-धीरे बढ़ता है | “कम से कम उस कमबख्त कि नज़र तो न पड़ती हमारी फूल कि कली पे | उस धनराज ने हमारी बिटिया के साथ बलात्कार किया और फिर उसे मार डाला |” मुंशीराम के ये बोलते ही  वो दोनों फूट-फूटकर रो पड़ते है | बाहर गौशाला में सब जानवर यह रोना सुन रहे होते है | भले ही वह जानवर हो, पर उन्हें भी सब समझ आता है | उन्हें समझ आती थी यह विलाप की चिंघाड़े | उन्हें समझ आता था कि कैसे वो छोटी बच्ची काफी समय से उन्हें चारा डालने नहीं आती | वो इस झोपडी में पसरे सन्नाटे को अच्छी तरह से समझते थे | ख़ैर, इन जानवरों के अलावा उनकी चीख-पुकार सुनने वाला कोई नहीं था | जब समय था, तब किसी ने नहीं सुनी, अब कौन सुनेगा |

          धनराज मुख्यमंत्री था | जाहिर तौर पर उसकी बहोत पहोच थी | दो साल पहले उसने मुंशीराम की बेटी के साथ बलात्कार करके उसे मार डाला था | पुलिस ने भी कुछ नहीं किया | मुंशीराम ठहरा अनपढ़ | कचहरी का काम उसकी समझ में नहीं आता था | इसलिए वह इन्साफ नहीं पा सका | उसने आवाज़ उठाई, पर वो दबा दी गयी | यहाँ तक कि धनराज के आदेश पर सरपंच हीरालाल ने उसे गाँव से बहिष्कार करवा दिया | बोलता, “इसकी बेटी का बलात्कार हुआ है | इसके परिवार कि कोई इज्ज़त नहीं बची | यह सब अछूत है | गाँव में रहेगा तो सबको खतरा है |” सब लोगो को पता था कि वो कितना अछूत है, पर डर के मारे किसी ने आवाज़ नहीं उठाई |

             कुछ देर बाद मुंशीराम बोलता है-“काश आज गिरजा यहाँ होती | उसे मिठाई कितनी पसंद थी |” इस बीच लीला मंदिर का दिया जला देती है | फिर वह दोनों सो जाते है |

              सुबह मुंशीराम खेत के लिए निकलता है | फसल अभी पूरी नहीं कटी थी | वो दोनों बैलो को लेकर निकल पड़ता है | पीछे लीला गाये का दूध निकालने में व्यस्त हो जाती है | मुंशीराम को रास्ते में कन्हइयां मिलता है | वो भी अपने खेत कि ओर जा रहा था | बहिष्कार के बावजूद, कन्हइयां थोड़ी बातचीत कर लेता था | वह दिल का अच्छा था | उसने २ साल पहले मुंशीराम को वकील दिलाने की भी नाकाम कोशिश करी थी | “आज कुछ खुश लग रहे हो?”, कन्हइयां मुंशीराम से पूछता है | मुंशीराम को आश्चर्य होता है | वो बोलता है, “तुम्हे नहीं पता | अरे..... बड़ा साहब चला गया” | “हा तो इसमें खुश होने वाली कौन सी बात है |” मुंशीराम हैरान होकर बोलता है, “अरे खुश क्यूँ नहीं हूँ | उस दरिंदे को उसके कर्मो की सजा तो मिली | हटा दिया उसे मुख्यमंत्री के पद से | उसे इसी पद का तो अभिमान था |” कन्हइयां मन ही मन सोचता है कि मुंशी कितना नादान है | “अरे मुंशी मेरे भाई, धनराज को हटाया नही गया है | वह प्रधानमंत्री बन गया है | हाँ | जाते वक़्त एक बार हीरालाल से मिलने आया था | अब पूरा देश उसके हाथ में है |” मुंशीराम के पैरो तले ज़मीन खिसक गयी | उसे विश्वास नहीं हो रहा था | वो खुद से पूछता है कि ऐसा कैसे हो सकता है | सुना है कि भगवन के घर में देर है अंधेर नहीं | पर ये कहा का न्याय हुआ | वो सदमे में जा रहा था | अन्दर से टूट ही चुका था, बस आसूं बाहर आने कि देर थी | कुछ ही पलो में वो भी आ गए | उसके आसूं टपक के धूप से तप रही मिट्टी में घुल जा रहे थे | मुंशीराम को एहसास हुआ कि यह उदासी उसके जीवन में घुल गयी है | अब उसे कभी न्याय नहीं मिलने वाला था |

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