पल दो पल का साथी

यूँ ही चबूतरे पर आज एक कबूतर बैठा दिख गया,
न जाने क्या हुआ उसे देखकर कि दिल बोल उठा,

"जा कबूतर जा, ढूँढ ले आ उस खोये हुए इन्सान को,
के यहाँ मुझे अब वो दिखता नहीं |
जा कबूतर जा, ढूँढ ले आ उस खोयी हुई मासूमियत को,
के यहाँ अब मुझे सिर्फ हैवानियत दिखती है |
जा कबूतर जा, ढूँढ ले आ उस प्यार को,
के यहाँ मुझे अब, सिर्फ नफरत दिखाई देती है |
जा कबूतर जा, ढूँढ ले आ उन खुशियों को,
जो संजो के रखी थी इंसान ने |"

शब्द ज़बान पर उतार न सका था मैं पूरे,
कि यूँ हवा में वो आज़ाद परिंदा उड़ चला,
सोचने लगा मैं कि क्या मंजिल होगी उसकी,
क्या गया होगा वो मेरे सवालों के जवाब ढूँढने,
अरे मैंने तो उसे पता भी नहीं बताया |

अरे भटक न जाये कही ये परिंदा भी,
भटके हुए इंसान की तरह,
फिर याद आया कि शायद मंजिलो का पता नहीं होता,
आज़ाद उड़ना हो तो......... रास्तो की फ़िक्र छोडनी पड़ती होगी|

जावाब मिले न मिले,
कुछ पल के लिए मुझे एक साथी ज़रूर मिल गया,
कुछ खास था उसमे,
के दिल के ख्याल कागज़ पर बयान कर वा गया |


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